Tuesday, October 11, 2016

"गुलमोहर उदास है"

मेरे मोहल्ले के कवि ने एक कविता लिखी जिसमे काम की बात इतनी सी है क़ि गुलमोहर उदास है।जहाँ तक मेरी जानकारी है क़ि इस कवि के घर गुलमोहर का पेड़ नहीं है।गुलमोहर तो छोडो किसी भी तरह का पेड़ नहीं है।वह पेड़ लगाने में विश्वास नही करता बल्कि बनते कोशिश दूसरों की जड़ें खोदने में लगा रहता है।यह ऐसा कवि है जो दूसरों के लगाये पेड़ों पर कविता लिखता है।असली बुद्धिजीवी की यही पहचान है।खुद कुछ मत करो दूसरा कोई करे तो ऊसे लपक लो।लेकिन ठीक है पराये गुलमोहर पर भी कविता लिखी जा सकती है।दुष्यंत कुमार ने कहा है जिओ तो अपने बगीचे में गुलमोहर के लिए मरो तो गैर की गलियों में गुलमोहर के लिए।कहने का तात्पर्य यह कि जो कुछ करना है गुलमोहर के लिए करो नहीं तो कुछ मत करो।जैसा कि प्रायः कवि लोग करते भी हैं।साहित्य में सबके अपने अपने गुलमोहर हैं।जिनमे कविगण सामर्थ्य के अनुसार खाद पानी देते रहते हैं।


और कविता का बगीचा लहलहाता रहता है।

लेकिन देश की असल समस्या गुलमोहर नहीं है।असल समस्या यह है कि रूपये का अवमूल्यन हो रहा है और महंगाई आम आदमी की कमर तोड़ रही है।कमर ही क्यों शरीर के दीगर हिस्से भी टूट रहे हैं।आम आदमी जजर बजर हो रहा है।वह झोला लेकर बाजार जाता है और गहरी उदासी लेकर लौट आता है।कोतमिर और पालक ने ही बजट बिगाड़ दिया है।उसे वित्तमंत्री पर भरोसा नहीं है।जो बार बार कहते हैं क़ि महंगाई कम होगी।उसे भिन्डी बेचने वाली बाई पर ज्यादा भरोसा होते जा रहा है जो दडेगम बोलती है क़ि भिन्डी का भाव कम नहीं होगा।
आदमी चाहता है सरकार सच बोले।सरकार समझ चुकी है क़ि सिर्फ बोलने से महंगाई कम नही होगी कुछ करना पड़ेगा ।वह महंगाई का मारक मन्त्र ढूंढने निकल पड़ी है।जब तक मन्त्र नहीं मिल जाता बयानबाज़ी करते रहो।एक प्रवक्ता ने तो यहाँ तक कहा कि महंगाई बढ़ी है तो कम भी होगी।विज्ञान का नियम है क़ि जो चीज जितनी ऊपर उठती है उतनी नीचे भी आती है।महंगाई कोई विज्ञानं से बड़ी थोड़े ही हो गई है।मैंने कहा सर आप बाजार पर विज्ञान के नियम लाद रहे हैं।वे बोले यार देखो इस देश का आदमी प्याज मिर्ची और घासलेट का रोना रोता रहता है।उसे विज्ञान की उपलब्धियां नजर नहीं आती।अरे हमने धरती के नीचे से ईश्वरीय कण खोज निकाला।आज ईश्वर के कण को खोजा है तो कल ईश्वर को भी ढूंढ निकालेंगे ।आप लोग महान खोजों के बजाय हल्दी मिर्ची का रोना रोते रहते हो।आयं ।सरकार क्या पन्सारी की दुकान चलाती है।बोलो।
वह कुतर्क पर उतर आया।उसने कहा भला बताइये महंगाई इतनी ही बढ़ गई है तो सारा देश रोज बिग बाजारों और मल्टीफ्लेक्सो में क्यों घुसा रहता है।कोई महंगाई वहंगाइ नहीं है।इस देश का बुद्धिवादी सही करता है।वह महंगाई की तरफ पीठ करके पड़ोसी के गुलमोहर पर कविता ठोंकता है।इसके दो फायदे हैं।एक तो महंगाई पर बेकार के विधवा विलाप से बच जाता है।और दूसरे गुलमोहर हरा भरा बना रहता है सो मुफ़्त में।पडोसी का ही सही फूल तो खिलते हैं। कि गलत कह रहा हूँ।

1 comment:

  1. आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" शनिवार 01 फरवरी 2020 को लिंक की जाएगी ....
    http://halchalwith5links.blogspot.in
    पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद!

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