Tuesday, October 11, 2016

"दाल पर उच्चस्तरीय बैठक"

दिल्ली में दाल को लेकर एक उच्चस्तरीय बैठक हो रही है ।चैनलों पर दिखाया जा रहा है ।खादीके झक्क सफ़ेद कुरतों और काली जैकेटों के बीच एक कम्पटीशन जैसा मचा है ।बैठक वालों के चेहरों पर इतनी गहन चिंता और तल्लीनता जैसी नजर आ रही है कि लगता है दाल के पौधे इसी क्षण संगमरमर का फर्श फोड़कर ऊग पड़ेंगे । चिंता जरूरी है ।बैठकों का यही दस्तूर है ।उच्चस्तरीय बैठक वालों का स्तर  ऊंचा होता है । फिदिल्ली में दाल को लेकर एक उच्चस्तरीय बैठक हो रही है ।चैनलों पर दिखाया जा रहा है ।खादीके झक्क सफ़ेद कुरतों और काली जैकेटों के बीच एक कम्पटीशन जैसा मचा है । बैठक वालों के चेहरों पर इतनी गहन चिंता और तल्लीनता जैसी नजर आ रही है कि लगता है दाल के  पौधे इसी क्षण संगमरमर का फर्श फोड़कर ऊग पड़ेंगे। चिंता जरूरी है। बैठकों का यही दस्तूर है ।उच्चस्तरीय बैठक वालों का स्तर  ऊंचा होता है । फिर उनके बीच चर्चा का स्तर जो भी हो उससे फर्क नहीं पड़ता ।अव्वल तो दाल जैसी सर्वहारा चीज पर बैठक हो जाये यही बहुत है ।

बैठक का एक सीधा सा मतलब  यह भी होता है कि बैठे रहो जहाँ बिठाया जा रहा है ।और तब तक मत उठो जब तक कमर या शरीर के दीगर हिस्से अकड़ न जाएँ। बैठक का उसूल ही यह है कि वह लंबी चले । वो कहते हैं न कि- " बैठे रहें तसव्वुर ए जाना किये हुए  ।अब आप ये मत कहिये कि इस उच्चस्तरीय बैठक में ये तसव्वुर ए जाना क्यों घुसा रहे हैं ।देखिये तसव्वुर ए जाना का ऐसा है कि राजनीति में तसव्वुर अर्थात कल्पना इसी बात की होती है कि माल किधर है और उसे लपकने का क्या इंतेजाम है। यहाँ बैठकें होती ही इसलिए हैं कि इस किस्म की तसव्वुरातों को हकीकत में बदला जा सके ।रही बात दाल की तो दाल में काला  सिर्फ यह है कि  देशी दाल को विदेशों से  आयात  किया जा रहा है और मजे की बात यह है कि इस देश में सात करोड़ किसान हैं तथा लाखों एकड़ कृषि भूमि है ,जो सोना चाहे न भी उगलती हो दाल तो ऊगा ही सकती है । मेरे पापी मन में यह शंका बार बार उठ रही है कि इस देश के किसानों से भी एक बार पूछ लिया होता कि भाई लोगों आप अरहर चना आदि क्यों नहीं उगाते । लेकिन क्या करें बैठक चूँकि उच्चस्तरीय है और यहाँ के  किसानो का  स्तर तो आपको  पता ही है भाई साब। बहरहाल । इधर दाल ने इस सदी के सबसे ऊंचे दामो पर बिक कर न केवल दलहन बिकवाली के सारे रिकार्ड तोड़ डाले वरन किस्से और किवदंतियों को भी उलट दिया घर की जिस  मुर्गी को दाल बराबर कहा जाता था वह दाल के सामने बांग देने लायक भी नहीं बची। जबकि पक्षियों  के जानकार  कहते हैं कि  बांग केवल मुर्गे देते हैं और मुर्गीयां उनकी बांगो को सुनकर सुबह जागने का कार्य सम्पन्न करती हैं । जो भी हो राजनीति के विशेषज्ञों का मानना है कि चीजों के दाम जब हद से ज्यादा बढ़ने लगे तो इस तरह की उच्चस्तरीय बैठक करना जरूरी हो जाता है । सारे देश के शाकाहारी दाल की बढ़ती कीमतों से दुखी हैं। उनके दालभात में कोई मूसलचंद आकर बैठ गया है जो फ़िलहाल इन बैठकों  से हटने वाला नहीं है ।अलबत्ता खुद की बात कहूँ तो अपनी दास्तान ए दाल फ़क़त इतनी है कि इधर निमाड़ में दाल की फसल आते ही हम लोग एक कट्टा दाल हर बार मिल से खरीद लेते हैं। इस बार भी खरीद ली थी जो उस वक्त 50 - 60 रपये किलो के हिसाब से मिल गयी । एक कट्टे में अमूमन 30- 35 किलो दाल आ जाती है ।जबकि हमारा काम मात्र 20 किला से ही चल जाता है ।लेकिन कट्टा लेना मजबूरी है ,मिल वाले लूज नहीं बेचते । जिन लोगों को कट्टे के बारे में संदेह है उनकी जानकारी के लिए बता दूं कि इस कट्टे का देशी पिस्तौल से कोई सम्बन्ध नहीं है। हलाकि इधर कई इलाकों में देशी कट्टे बनाने का गृहउद्योग भी  तेजी से पनप रहा है जो कि ठीक ही है ।देशी कट्टे वाले भी अंततः इस पापी पेट के लिए दालरोटी के इंतेजाम में ही लगे हैं ।दाल रोटी की चिंता न हो तो आदमी ऐसे जोखिम भरे काम में हाथ क्यों डाले । खैर कल शाम पत्नी ने दाल को लेकर एक ऐसा मुद्दा उपस्थित कर दिया जो यदि संसद में उठा दिया जाये तो सरकार कट्टा खरीदने पर प्रतिबन्ध लगा दे। पत्नी ने प्रसन्नचित्त होते हुए कहा कि अगली बार भी एक कट्टा दाल खरीद लाना । मैंने कहा दाल खत्म हो गयी क्या। वे बोलीं नहीं ,बगल वाली मिसेज वर्मा को जरूरत थी सो मैंने 200 रूपये किलो  की दर से 10 किलो बेच दी। एक किलो पीछे 150 रूपये बच गए ।इतना कहकर वह दाल का कूकर रखने चली गयी और मैं जमाखोरी और ब्लैक मार्केटिंग के इस नितांत घरेलु संस्करण पर अभी भी सोच रहा हूँ  ।र उनके बीच चर्चा का स्तर जो भी हो उससे फर्क नहीं पड़ता ।अव्वल तो दाल जैसी सर्वहारा चीज पर बैठक हो जाये यही बहुत है । बैठक का एक सीधा सा मतलब  यह भी होता है कि बैठे रहो जहाँ बिठाया जा रहा है ।और तब तक मत उठो जब तक कमर या शरीर के दीगर हिस्से अकड़ न जाएँ ।बैठक का उसूल ही यह है कि वह लंबी चले । वो कहते हैं न कि -" बैठे रहें तसव्वुर ए जाना किये हुए  ।अब आप ये मत कहिये कि इस उच्चस्तरीय बैठक में ये तसव्वुर ए जाना क्यों घुसा रहे हैं ।देखिये तसव्वुर ए जाना का ऐसा है कि राजनीति में तसव्वुर अर्थात कल्पना इसी बात की होती है कि माल किधर है और उसे लपकने का क्या इंतेजाम है ।  यहाँ बैठकें होती ही इसलिए हैं कि इस किस्म की तसव्वुरातों को हकीकत में बदला जा सके ।रही बात दाल की तो दाल में काला  सिर्फ यह है कि  देशी दाल को विदेशों से  आयात  किया जा रहा है और मजे की बात यह है कि इस देश में सात करोड़ किसान हैं तथा लाखों एकड़ कृषि भूमि है ,जो सोना चाहे न भी उगलती हो दाल तो ऊगा ही सकती है ।मेरे पापी मन में यह शंका बार बार उठ रही है कि इस देश के किसानों से भी एक बार पूछ लिया होता कि भाई लोगों आप अरहर चना आदि क्यों नहीं उगाते । लेकिन क्या करें बैठक चूँकि उच्चस्तरीय है और यहाँ के  किसानो का  स्तर तो आपको  पता ही है भाई साब । बहरहाल। इधर दाल ने इस सदी के सबसे ऊंचे दामो पर बिक कर न केवल दलहन बिकवाली के सारे रिकार्ड तोड़ डाले वरन किस्से और किवदंतियों को भी उलट दिया घर की जिस  मुर्गी को दाल बराबर कहा जाता था वह दाल के सामने बांग देने लायक भी नहीं बची। जबकि पक्षियों  के जानकार  कहते हैं कि  बांग केवल मुर्गे देते हैं और मुर्गीयां उनकी बांगो को सुनकर सुबह जागने का कार्य सम्पन्न करती हैं । जो भी हो राजनीति के विशेषज्ञों का मानना है कि चीजों के दाम जब हद से ज्यादा बढ़ने लगे तो इस तरह की उच्चस्तरीय बैठक करना जरूरी हो जाता है । सारे देश के शाकाहारी दाल की बढ़ती कीमतों से दुखी हैं ।उनके दालभात में कोई मूसलचंद आकर बैठ गया है जो फ़िलहाल इन बैठकों  से हटने वाला नहीं है ।अलबत्ता खुद की बात कहूँ तो अपनी दास्तान ए दाल फ़क़त इतनी है कि इधर निमाड़ में दाल की फसल आते ही हम लोग एक कट्टा दाल हर बार मिल से खरीद लेते हैं। इस बार भी खरीद ली थी जो उस वक्त 50 - 60 रपये किलो के हिसाब से मिल गयी । एक कट्टे में अमूमन 30- 35 किलो दाल आ जाती है ।जबकि हमारा काम मात्र 20 किला से ही चल जाता है ।लेकिन कट्टा लेना मजबूरी है ,मिल वाले लूज नहीं बेचते ।जिन लोगों को कट्टे के बारे में संदेह है उनकी जानकारी के लिए बता दूं कि इस कट्टे का देशी पिस्तौल से कोई सम्बन्ध नहीं है ।हलाकि इधर कई इलाकों में देशी कट्टे बनाने का गृहउद्योग भी  तेजी से पनप रहा है जो कि ठीक ही है  ।देशी कट्टे वाले भी अंततः इस पापी पेट के लिए दालरोटी के इंतेजाम में ही लगे हैं। दाल रोटी की चिंता न हो तो आदमी ऐसे जोखिम भरे काम में हाथ क्यों डाले । खैर कल शाम पत्नी ने दाल को लेकर एक ऐसा मुद्दा उपस्थित कर दिया जो यदि संसद में उठा दिया जाये तो सरकार कट्टा खरीदने पर प्रतिबन्ध लगा दे । पत्नी ने प्रसन्नचित्त होते हुए कहा कि अगली बार भी एक कट्टा दाल खरीद लाना । मैंने कहा दाल खत्म हो गयी क्या । वे बोलीं नहीं ,बगल वाली मिसेज वर्मा को जरूरत थी सो मैंने 200 रूपये किलो  की दर से 10 किलो बेच दी  ।एक किलो पीछे 150 रूपये बच गए ।इतना कहकर वह दाल का कूकर रखने चली गयी और मैं जमाखोरी और ब्लैक मार्केटिंग के इस नितांत घरेलु संस्करण पर अभी भी सोच रहा हूँ  ।

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