“ वार्ड नम्बर सत्रह का मरीज़ ”
कैलाश मण्डलेकर
उनको चिकनगुनिया हुआ था लेकिन वो मानने को तैयार नहीं थे | वे बता रहे थे की उनको
डेंगू हुआ है, ये लोग गलत इलाज कर रहे हैं | ये लोग यानी डॉक्टर वगैरह | उनकी सारी ज़िन्दगी संदेह करते हुए गुजरी है | शक करने की उनकी फितरत है | मित्र लोग मज़ाक में उन्हें
शक-सम्राट कहते हैं | साहित्य में यदि संदेहवाद नाम का कोई युग होता तो वे युग प्रवर्तक होते | बहरहाल |
उन्होंने
मोबाइल फ़ोन के लुप्तप्राय नेटवर्क के सहारे अपनी डूबती उतराती आवाज़ में सूचना दी कि,
वे वार्ड नंबर सत्रह में भर्ती है, जो सर्जिकल वार्ड के बाजू में हैं | मैंने उनकी आवाज़ से अनुमान
लगा लिया, कि सर्जिकल वार्ड कहीं भी हो सर्जिकल स्ट्राइक वहीँ होनी है, जहां वे भर्ती
हैं | वे अस्पताल में हो
और वहाँ बमबारी ना हो ऐसा हो ही नहीं सकता | और वही हुआ ! मैं जब वार्ड नम्बर सत्रह में पहुंचा तब तक
वे डॉक्टरों से उलझ चुके थे | डॉक्टर कह रहे थे की इन्हें चिकनगुनिया हुआ है और दो-तीन
दिनों में ठीक हो जायेंगे | लेकिन उन्हें डॉक्टरों पे भरोसा नहीं हो रहा था | वे अपने स्वघोषित निदान के
चलते खुद को डेंगू का मरीज़ मान चुके थे | उन्हें संदेह था कि पैथोलौजी वालों ने उनके खून का सैंपल
बदल दिया है | इन अस्पताल वालों
का कोई भरोसा नहीं है भाईसाहब | वे डॉक्टर के सामने देर तक बड़बड़ते रहे |
वे कवि
और आलोचक इत्यादि हैं और इसी कारण से क्रांतिकारी भी हैं | छोटी मोटी क्रान्ति तो रोज
कर लिया करते हैं |यदि ठान लें तो अस्पताल तक को लपेटे में ले लें | पर अभी तक ठाना नहीं है | यों बुखार ना हो तब भी
उनके भीतर एक आग सी हमेशा लगी रहती है | गाहेबगाहे मार्टिन लूथर किंग और चे ग्वारा
की रूहें उनके भीतर अक्सर प्रवेश कर जाती हैं | लेकिन फिलहाल इस आग का कारण चे ग्वारा नहीं बल्कि
चिकनगुनिया है , जिसे वे डेंगू कह रहे हैं | होने को वे हमारे अभिन्न मित्र हैं, लेकिन देखा जाए तो वे
विभाजित व्यक्तित्व के प्रतिनिधि महापुरुष हैं | अस्थिरता और बेचैनी को उन्होंने आत्मसात जैसा
कर लिया है |
बच्चों
ने बताया कि दो-तीन दिन पहले, जब उनके हाथ पैर में दर्द और सिर में भन्नाट जैसी
मची तो उन्हें लगा की कुछ गड़बड़ है | वे झट से अपने अध्ययन कक्ष में घुस गये और सुश्रुत से लेकर
चरक संहिता तक सबकुछ खंगाल डाला | फिर कांपते कराहते हुए, सौंठ और तुलसी के काढ़े से एडीस नामक
मच्छर के खानदान को चुनौती देते रहे | किसी ने बताया की कच्चे पपीते का दूध ऐसे बुखार में रामबाण
होता है | लिहाजा कच्चा पपीता
हाज़िर किया गया | उन्हें संदेह ना हो इसलिए, बच्चे लोग पपीते के छोटे-छोटे पौधे भी उखाड़ लाये | लेकिन उनका कांपना नहीं
रुका | थक हारकर घर वाले
उन्हें उनकी मर्जी के खिलाफ, ठेलते ठालते अस्पताल ले आये |
मैंने
उनका हाथ पकड़ते हुए कहा, चिंता मत करो ठीक हो जाओगे | वे बोले ये हाथ मत पकड़ो, ड्रिप
निकल जायेगी | मैंने शर्मिन्दा
होते हुए, अपना मुड्डा उठाकर पलंग के दुसरे बाजू में रख लिया जिधर उनका दूसरा और ड्रिपविहीन
हाथ था | अब मैं शांति से ढाढ़स
बंधा सकता था, जबकि उन्हें किसी भी किस्म के ढाढ़स की जरुरत नहीं थी | वे गंभीर चिंतन की मुद्रा
में थे और मन में उठे किसी नवागत विचार से हाथापाई कर रहे थे | मैंने उनसे पूछा अब कैसा
लग रहा है | उन्होंने कहा -
“वीकनेस है और सर चकराता है” | लेकिन असल समस्या ये नहीं है | असल समस्या है, बुखार का
रवैया | इस बुखार का तेवर
एक दम पाकिस्तानी है | चढ़ता है फिर उतर जाता है | या तो चढ़ जाए या फिर पूरा उतर जाए | मुझे हंसी आ गयी | वे भी मुस्कुरा दिए | फिर उन्हें लगा की वे
बीमार हैं, इसलिए गंभीर हो गए |
उन्होंने
कहा मेरा एक काम करोगे? मैंने कहा आदेश करें | वे बोले हो सके तो कहीं से काली बकरी का दूध ले आओ | काली
बकरी का दूध डेंगू को जड़ से ख़त्म कर देता है | मैंने तत्काल इन्ट्राविनस ड्रिप वाली खाली बोतल उठाई और काली
बकरी ढूंढने अस्पताल के बाहर निकल गया | मुझे लगा इस महानगर में काली बकरी ढूँढना, हंसी ठट्ठा नहीं
है | लेकिन मुझसे ज्यादा चुनौती तो उन डॉक्टरों के सामने है जो एक ऐसे मरीज़ का
इलाज कर रहे हैं जिसे चिकनगुनिया का बुखार है पर वो खुद को डेंगू का मरीज़ मान चुका
है |
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