Tuesday, October 11, 2016

“मकई के दानों से आर्थिक महाशक्ति बनता देश”


मुझे उस मॉल के भीतर नहीं जाना है यह मैं मन ही मन तय कर चुका था | बाहर खुली हवा और साफ़ आसमान था | मॉल के परिसर में चमकती कारों की सतत आवाजाही हो रही थी, जिन्हें पार्किंग के लिए नियुक्त गार्ड सीटी बजाकर नियन्त्रित कर रहा था | श्रीमती जी को बिटिया के लिए सलवार सूट लेना था लेकिन सलवार सूट बहाना था असली बात यह थी कि मॉल में आज फिफ्टी परसेंट की छूट की घोषणा हुई थी | इस छूट को लोग लूट समझ रहे थे, इसलिए भीड़-भाड़ थी | भीड़ को चीरती हुई भीड़ | क्या भूलूं क्या याद करूं की तर्ज पर क्या खरीदूं क्या छोडू जैसा माहौल | मै प्रवेश द्वार तक गया और एस्केलेटर का डंडा पकड़कर रुक गया | मैंने पत्नी से कहा कि मै यहीं रुकता हूँ | मुझे सलवार सूट की वैसे भी परख नहीं है | पत्नी ने ताना दिया कि – तुम्हे कई चीजों की परख नहीं है | मै मॉल के मुहाने पर हुज्जत नहीं करना चाहता था | इस काम के लिए घर में ढेर सारा वक्त मिलता है, इसलिए खामोश रहा | वह दृढ़ता से ऊपर चली गयी और मै बेशरमी से नीचे उतर आया | नीचे बहुत रौशनी थी | उजाले का अतिरेक जैसा |मै जब भी इतने भव्य उजाले को देखता हूँ मुझे अक्सर अपना गाँव याद आ जाता है , जहाँ रात भर अँधेरा अपने जबड़े फैलाए रहता है |
वहां बिजली के खम्भे भर लगे हैं रौशनी नहीं है | विधायक का कहना है कि ठेकेदार इस बार भी पैसे खा गया लिहाजा अगले चुनाव तक घासलेट से जलने वाली कंदीलों से ही काम चलाना पड़ेगा | सोचता हूँ इस नियोन बत्ती वाले खम्भे को उखाड़कर गाँव की चौपाल पर लगा दूं , पर सोचने से क्या होता है | मॉल में रंगीन बत्तियों से चमकती दूकानों के अलावा छोटे छोटे झिलमिल करते फव्वारे और कई तरह की खुशबुओं से सरसराती हवा बह रही थी | लकदक सौन्दर्य की अनुपम छटा | बाजार का भी अपना एक सौन्दर्य होता है | तुलसी ने कहा है – “ ध्वज पताक पट चामर चारु / छापा परम विचित्र बाजारू | मानस में जिस बाजार का वर्णन है यहाँ का बाजार उससे इक्कीस ही रहा होगा | मॉल के बाहर एक मक्का का स्टाल देख कर मैं उधर चला गया | मक्का की दूकान की सजावट भी रमणीय थी | इच्छा तो सिगड़ी में सिंके हुए भुट्टे खाने की हो रही थी लेकिन इस साफ़ सुथरे और रौशनी से आतंकित करने वाले परिसर में धुंए वाली सिगड़ी की कल्पना करना अधम और नारकीय विचार है | अतः सिगड़ी में सिंके भुट्टे खाने की इच्छा को विलोपित करते हुए मैंने मक्का से मन बहलाने का निर्णय लिया | पत्नी यदि मॉल में घुस जाये तो टाइम पास के लिए मक्का और मुमफली के सिवा कोई विकल्प नहीं बचता |मैंने मक्का चुनी | वह उबली हुई मक्का थी पर मक्के वाला बता रहा था कि वह अमरीकन कॉर्न है | मैंने अपने स्वदेशी वाले स्वाभिमान को जाग्रत करते हुए कहा मक्का तो अपने यहाँ भी खूब होती है | वह मेरी तरफ हिकारत से देखने लगा | मैंने कहा एक प्लेट दे दो | ठेठ देशी लहजे में मक्का मांगने पर वह कुछ आहत सा हुआ , मानो उसके व्यावसायिक आभिजात्य पर चोट पहुँची हो | उसने कहा मक्का नहीं अमरीकन कॉर्न प्लेट्स बोलिए सर , वह दूकान के साइनबोर्ड की तरफ देखते हुए बोला | मैंने कहा हाँ वही | उसने एक कागज के कप में थोड़े से मक्का के दाने दे दिए | मक्का स्वादिष्ट थी | मैंने कहा कितने हुए , उसने कहा सिक्सटी ! मै हतप्रभ हुआ फिर हतप्रभ न होने का अभिनय करते हुए साठ रूपये निकालकर दे दिए | लेकिन मन नहीं माना | मैंने कहा सुनो इन पच्चीस तीस मकई के दानों के साठ रूपये वसूलते हुए तुम्हे अजीब नहीं लगता | तुम इसी देश बल्कि आसपास के किसी गाँव के रहने वाले हो और अच्छी तरह जानते हो कि इतनी मकई की कीमत मुश्किल से दो रूपये भी नहीं है | वह बोला जानता हूँ सर ! लेकिन देखिये एक तो इस जगह की कीमत | फिर ये इन्डक्शन चूल्हा, जिस पर कॉर्न उबाली जाती है, फिर ये पेपर कप जो सेमी आटोमेटिक डबल डाई माइक्रो कंट्रोलर बेस्ड मशीन पर बने हैं | फिर यह नियोंन रोशनी | देखिये ग्लोब्लैजेशन ने मक्का को कहाँ पहुंचा दिया | मैं उससे यह भी पूछना चाहता था कि हमारे देश के मक्का उगाने वाले भी कहीं पहुंचे कि नहीं ? लेकिन खामोश रहा | बाजार के इस इंद्रजालिक सम्मोहन में उलझे बगैर मैंने सोचा देश को इकानामिक सुपर पावर बनाने में यदि दो रूपये की मक्का के साठ रूपये देने पड़े तो एक नागरिक के तौर पर मुझे ज्यादा हीला हवाला नहीं करना चाहिए|

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