Wednesday, November 9, 2016

"कबीर के विपरीत चौराहे पर खाली झोला लिए खड़े हम"


ग्राहक को जगाया जा रहा है | जगानेवाला ग्राहक का भला करना चाहता है | उसका इरादा साफ है | उसकी भलमनसाहत पर संदेह नहीं किया जाना चाहिए | वह कह रहा है कि जागो वर्ना बाजार में धोखा हो सकता है | यहाँ कम तौलने  और नकली माल टिकाने वालों की भरमार है | इस कारण ग्राहक का जागना जरूरी है | वह बार बार कह रहा है जागो ग्राहक जागो | जागो क्योंकि लूटपाट होने का डर है | यह बाजार के खिलाफ जागरण का सन्देश है | सौदा सुलफ करते वक्त लोग सजग रहें यह अच्छी बात है | पर आजकल अच्छी बात भी कहाँ अच्छी लगती है | लोगों के सामान्य व्यवहार और आचरण में इतनी बुराइयाँ और अविश्वास पनप चुका है कि भलाई के लिए जगाने वाले पर भी संदेह होता है | भाई तू हमें क्यों जगा रहा है | हमारे लुटने पिटने से तुझे क्या मतलब है ? तू कौन है  ? 

                              इन्ही संदेहों के कारण जागरण का यह आह्वान जेब काटने की साजिश जैसा लगता है |  उनींदे ग्राहक को लगता है कि सामने वाला  जगाने की आड़ में कहीं अपने धंधेबाजी की जुगाड़ तो नहीं कर रहा है | इस जागरण के पीछे कहीं बाजार वालों की ही दुरभिसंधि तो नहीं है | ऐसा तो नहीं कि अगला दुकानदार से डील करके आया हो और यहाँ आकर कह रहा हो जागो क्योंकि दूकान खुल चुकी है | क्योंकि माल गोडाउन से चलकर बाजार में आ चुका है और तुम अभी तक सोये पड़े हो | जागो , क्योंकि बिसात बिछ चुकी है | बाजार में इतनी चकाचौंध है ऐसे में तुम सो कैसे सकते हो | तुम नहीं जगे तो दूकानदार सो जायेगा इसलिए जागो | यों देखा जाये तो अभी रात का धुंधलका जैसा है | कहीं यह मेगा पावर  के मरक्युरी जलाकर सुबह होने का भ्रम तो नहीं पैदा किया जा रहा है | अरे हाँ भाई साब बाजार का तंत्र इन दिनों इतना भ्रम पैदा कर रहा है कि आदमी खुद को बेचकर भी सामान  खरीदने के लिए तैयार हो जाता है | बच्चों को बेचने की ख़बरें तो आये दिन पढने को मिलती है | मुझे तो लगता है भैया कुछ गड़बड़ है | यह मोहन प्यारे को जगाने वाली मनुहार नहीं है यह शोर मचाकर नींद  तोड़ने का षड्यंत्र जैसा लग रहा है | क्योंकि जगाने वाला सिर्फ ग्राहक को जगा रहा है “ जागो ग्राहक जागो ” | वह इंसान को नहीं जगाता | अगर आप इंसान हैं तो बाजार के किसी काम के नहीं हैं | आपके भीतर जो ग्राहक बैठा या सोया है उसे जागना चाहिए | बाजार  को  उसी की जरूरत है |इधर आदमी के सोने और जागने की सारी दिशायें बाजार  से बावस्ता हो चुकी हैं | पता नहीं पिछले पच्चीस तीस सालों के इस नामुराद वक्फे में ऐसा क्या हुआ कि अच्छा भला आदमी सिर्फ ग्राहक या दूकानदार बनकर रह गया | अमर्त्य सेन उदारीकरण और आर्थिक विकास की जितनी भी व्याख्या  करें उनकी व्याख्याओं में इस बात का खुलासा कहीं  नहीं होता कि आजकल वानप्रस्थ की अवस्था में आदमी दूकान खोलने की तरफ क्यों प्रवृत्त होने लगा  है | पहले आदमी सेवा निवृत्त होता था तो होम्योपैथी की किताबें खरीदकर मोहल्ले के लोगों का इलाज करता था |यह अलग बात है कि जानकारी की न्यूनता के कारण  बीमार ठीक नहीं होते थे पर पर रुग्णता के प्रति जागरण तो होता  था | आज आदमी रिटायर्ड होता है तो सबसे पहले घर के सामने की दीवार  तोड़कर उसमे शटर डालता है और “ किराना एवम जनरल स्टोर्स ” का साइनबोर्ड ठोंक कर दो पैसे कमाने में जुट जाता है | इस  दो पैसे कमाने के मुहावरे ने घरों के वास्तु को बदल डाला | इन दिनों घर ही ऐसे बनने लगे हैं कि सामने दस बाई दस की दूकान निकल जाये | नीचे पान की दूकान ऊपर गोरी का मकान टाईप का वास्तु शिल्प | अब किसी के घर जाओ तो दूकान से होकर गुजरना पड़ता है | हयात के सफर में मैकदे की राह जैसा मामला | घरों में आत्मीयता की सुवास नहीं बची , रात दिन गुड़ और गरम मसालों की गंध आती रहती है |
                      संबंधों के अर्थ बदल रहे हैं | प्रेम और सौजन्यता के बीच बाजार खड़ा हो गया |आड़े वक्त पर पड़ोस से कटोरी भर शकर मांगने का सौहार्द समाप्त हो गया | मिसेज शर्मा की भोली पड़ोसन घर में घुसते ही हैरान हो जाती है कि वाह ! मिसेज शर्मा तुम्हारे यहाँ तो सब चलता है पर हमारे यहाँ तो बिजली न हो तो कुछ भी नहीं चलता |  अरे साहब बिजली नहीं होगी तो कैसे चलेगा | लेकिन बाजार आपको विकल्प देने को उतावला बैठा है | यह विपणन की अधुनातन प्राविधि है जो बिना बिजली के भी सब कुछ चला सकती है | जो विकल्पों के व्याकरण को समझता है वही जागा हुआ ग्राहक है |
                             मानसकार संसारिकता की काल रात्रि से जागकर  मोक्ष के निर्मल सुप्रभात तक चले गए | रामकृपा भव निशा सिरानी जागे अब न डसैहों | यह कैवल्य का जागरण था | हम बाजार से जागकर फिर उसी बाजार में हैं जहाँ कबीरदास हाथ में लुकाटी लिए खड़े थे | कबीर घर फूंक कर आए थे इसलिए बिंदास थे | हम भयभीत हैं | हमारे हाथ में सिर्फ खाली झोला है और हम बाजार के चौराहे पर बदहवास खड़े हैं |

Sunday, October 23, 2016

“स्वच्छता अभियान की एक ग्रामीण झाँकी”

स्वच्छता अभियान की एक ग्रामीण झाँकी
कैलाश मण्डलेकर

शहर में स्वच्छता अभियान जोर पकड़ चुका है ।युवा नेतृत्व की एक पूरी फ़ौज जुटी है ।शहर की सड़कों की खैर नहीं है ।भर भुनसारे से सफाई शुरू हो जाती है । प्रधानमंत्री का स्वच्छता अभियान है कोई हँसी ठट्ठा नहीं है ।प्रोफेशनल सफाईकर्मी हैरत में हैं ।छोटी छोटी निरीह और दुर्बल  झाडुओं के स्थान पर बड़ी बड़ी आदमकद झाडुएं आ गई हैं । इन झाडुओं से सफाई करते वक्त कमर नहीं झुकानी पड़ती । खड़े खड़े ही सफाई हो जाती है । झुकी कमर से झाड़ू लगाओ तो वीडियो में चेहरा नहीं आता सिर्फ कमर आती है । कमर से यह पता नहीं चलता  कि किस की कमर है । धोखा हो जाता है कि अगला झाड़ू लगा रहा है या सजदा कर रहा है । दुष्यंत कुमार याद आ जाते हैं “ मैं सजदे में नहीं था आपको धोखा हुआ होगा ” 
                                                                                   सफाई का भी एक उन्माद जैसा होता है ।यारों ने सड़क पर वेक्यूम क्लीनर लगा डाले।जिन्हें स्थानीय निकायों में टिकिट का डोल बिठाना था  उन्होंने नीम की पत्तियां बटोरकर गणमान्य लोगों के हाथों डस्टबिन में डलवा दी । कॅरियर का सवाल है भाई साब । तबीयत से फोटुएँ खींची गई ।सफाई का भभ्भड़ जैसा मच गया ।स्वच्छता की ख़बरों से अखबार बजबजा   उठे । शहरों की गंदगी प्रेस तक पसर गई ।इतनी सफाई कर डाली कि ट्रेंचिंग ग्राउंड पर कूड़े के विंध्याचल खड़े हो गए ।कचरे को रिसाइकिल करने वाली मशीनें हाँफने लगी ।यदि वे बोल सकती तो बोल पड़ती “ बस करो बाबा बहुत हो गया ” पर अभिव्यक्ति का संकट उन्हें भी  है । 
                                                          नजदीक से देखो तो पता चलता है कि स्वच्छता अभियान में भी दलबंदी है ।इनका सफाई अभियान उनके अभियान पर भारी पड़ता है । रमेश भाई का स्वच्छता अभियान सुरेश भाई से इक्कीस बैठता है ।इनको भैयाजी का समर्थन है उनके साथ भैयाजी के विरोधी गुट वाले हैं । इन्होंने  स्वच्छता अभियान के उद्घाटन में जगराते वाले करतार भाई को बुलवाया था । उसकी टक्कर में ये आमिर खान से संपर्क कर रहे हैं ।खूब मनोरंजन  हो रहा है । शहर में सफाई हो रही है या कव्वाली होने वाली है “ तेरी महफ़िल में किस्मत आजमा कर हम भी देखेंगे ” । किसी ने  कहा यहाँ तो बहुत हो गया हम लोगों को गाँवों की तरफ भी ध्यान देना चाहिए ।ऐसा न हो कि शहर तो साफ़ सुथरे हो जाएं और गाँव बिचारे उसी परम्परागत गंदगी में लिथड़े रहें जिसमे हम लोग उन्हें धकेल आये हैं ।यों भी देखा जाये तो भारत माता ग्राम वासनी है ।तथा गांधी जी जिस अंतिम आदमी को आजादी का स्वाद चखाना चाहते थे वह इन्ही गांवों में पाया जाता है ।लोगों को गांव जाने वाला विचार इतना अच्छा लगा कि वे तत्काल तैयार हो गए । भैयाजी ने कहा कि ऐसे गाँवों  को चिन्हित कर लिया जाये  जो सुदूर अंचल में हैं और जहाँ सफाई की वाकई जरुरत है । जत्थे में ज्यादातर कार्यकर्त्ता दूरदृष्टि वाले थे । उन्होंने अंदाज लगा लिया कि सूदूर अंचल का वास्तविक अर्थ  क्या होता है । सफाई अभियान में काम करते हुए उन्हें काफी अनुभव हो चुका था ।उन्हें मालूम था कि भैया जी को तो सिर्फ कचरे के तैयार ढेर पर झाड़ू का स्ट्रोक मारना है और फोटो खिंचवानी है । बाकी गांव की सफाई और दीगर व्यवस्था तो हमें देखनी है । लिहाजा पेट पूजा को भी देखना पड़ेगा । मामले की नजाकत को भांपते हुए एक उत्साही कार्यकर्त्ता ने अपने साथी की तरफ एक गहरी और रहस्यमय नजर डाली और एक ऐसे गांव को चिन्हित कर लिया जहाँ काला मांसी नस्ल के कड़कनाथ मुर्गे पाये जाते हैं । 
                                        स्वच्छता अभियान वाला जत्था निकल पड़ा । जिन लाठियों में कभी पार्टी का झंडा बांधकर गांवों में स्वदेशी जागरण का अभियान चलाया था उनमे झाड़ू बांधकर सफाई के लिए तैयार कर दी गई । लाठी का यह बहुउद्देशीय चरित्र भारतीय काव्य परंपरा में सदियों से विख्यात है “ लाठी में गुण बहुत हैं सदा राखिये संग ” । गांवों की ये खासियत होती है कि गांव में जाकर भी गाँव दिखाई नहीं देता । वह ऐसा ही गांव था । (गाँव भीतर गांव सत्यनारायण पटेल ) के उपन्यास जैसा ।सफाई  अभियान वालों ने देखा कि इस गाँव में सफाई की महती समभावनाएँ हैं ।असल में गाँव इतना बिखरा बिखरा और कूड़ों के ढेर से अटा पड़ा था कि लोग भ्रमित हो रहे थे कि शुरू किधर से करें और अन्त कहाँ हो ।कतिपय कार्यकर्ताओं का तो यहाँ तक कहना था कि इन झोपड़ों पर पहले एक रोड रोलर चला दिया जाये । तथा जमीन सरपट होने के बाद सफाई का सोचा जाये । हलाकि इस पवित्र विचार की व्यावहारिक परिणति नहीं हो सकी । 
                 जैसे तैसे  सफाई शुरू हुई और इस  दौरान गाँव वालों के मार्फ़त जो नायाब किस्सा दरपेश आया देखा जाये तो वह भी सफाई से ही जुड़ा था । दरअसल उस गाँव के सरपंच ने एक विधवा आदिवासी महिला के जीवन यापन के लिए मिली राशि को जिस सफाई से हड़पकर अपने खाते में जमा कराई उसे सुनकर सफाई अभियान वाले दंग रह गए ।सरपंच डरा हुआ था ।उसे अपनी सरपंची जाने का खतरा सता रहा था ।लेकिन सफाई अभियान वाले एक कार्यकर्त्ता ने उसे अलग ले जाकर काफी ढाढस बंधाया । उसने समझाया कि ऐसी टुच्ची वारदातों से सरपंची छिन जाये तो फिर हो चुकी राजनीति । इस बात को सुनकर सरपंच काफी प्रसन्न हुआ और उसने कार्यकर्ताओं की ऐसी मेहमान नवाजी कि कोई भूल नहीं सकता । 
            सफाई अभियान वालों का जत्था लौट रहा है। गाँव जैसा भी साफ़ हुआ हो पर सफाई अभियान में पास वाली झोपड़ी के तीन चार स्वस्थ मुर्गे भी साफ़ हो गए । गाँव वालों ने इस जत्थे को विदाई देते हुए कहा “  अरु आवजो    ” यानि और आना ।

Sunday, October 16, 2016

“ वार्ड नम्बर सत्रह का मरीज़ ”

“ वार्ड नम्बर सत्रह का मरीज़ ”
कैलाश मण्डलेकर

उनको चिकनगुनिया हुआ था लेकिन वो मानने को तैयार नहीं थे | वे बता रहे थे की उनको डेंगू हुआ है, ये लोग गलत इलाज कर रहे हैं | ये लोग यानी डॉक्टर वगैरह | उनकी सारी ज़िन्दगी संदेह करते हुए गुजरी है | शक करने की उनकी फितरत है | मित्र लोग मज़ाक में उन्हें शक-सम्राट कहते हैं | साहित्य में यदि संदेहवाद नाम का कोई युग होता तो वे युग प्रवर्तक होते | बहरहाल |
              उन्होंने मोबाइल फ़ोन के लुप्तप्राय नेटवर्क के सहारे अपनी डूबती उतराती आवाज़ में सूचना दी कि, वे वार्ड नंबर सत्रह में भर्ती है, जो सर्जिकल वार्ड के बाजू में हैं | मैंने उनकी आवाज़ से अनुमान लगा लिया, कि सर्जिकल वार्ड कहीं भी हो सर्जिकल स्ट्राइक वहीँ होनी है, जहां वे भर्ती हैं | वे अस्पताल में हो और वहाँ बमबारी ना हो ऐसा हो ही नहीं सकता | और वही हुआ ! मैं जब वार्ड नम्बर सत्रह में पहुंचा तब तक वे डॉक्टरों से उलझ चुके थे | डॉक्टर कह रहे थे की इन्हें चिकनगुनिया हुआ है और दो-तीन दिनों में ठीक हो जायेंगे | लेकिन उन्हें डॉक्टरों पे भरोसा नहीं हो रहा था | वे अपने स्वघोषित निदान के चलते खुद को डेंगू का मरीज़ मान चुके थे | उन्हें संदेह था कि पैथोलौजी वालों ने उनके खून का सैंपल बदल दिया है | इन अस्पताल वालों का कोई भरोसा नहीं है भाईसाहब | वे डॉक्टर के सामने देर तक बड़बड़ते रहे |
              वे कवि और आलोचक इत्यादि हैं और इसी कारण से क्रांतिकारी भी हैं | छोटी मोटी क्रान्ति तो रोज कर लिया करते हैं |यदि ठान लें तो अस्पताल तक को लपेटे में ले लें | पर अभी तक ठाना नहीं है | यों बुखार ना हो तब भी उनके भीतर एक आग सी हमेशा लगी रहती है | गाहेबगाहे मार्टिन लूथर किंग और चे ग्वारा की रूहें उनके भीतर अक्सर प्रवेश कर जाती हैं | लेकिन फिलहाल इस आग का कारण चे ग्वारा नहीं बल्कि चिकनगुनिया है , जिसे वे डेंगू कह रहे हैं | होने को वे हमारे अभिन्न मित्र हैं, लेकिन देखा जाए तो वे विभाजित व्यक्तित्व के प्रतिनिधि महापुरुष हैं | अस्थिरता और बेचैनी को उन्होंने आत्मसात जैसा कर लिया है |
              बच्चों ने बताया कि दो-तीन दिन पहले, जब उनके हाथ पैर में दर्द और सिर में भन्नाट जैसी मची तो उन्हें लगा की कुछ गड़बड़ है | वे झट से अपने अध्ययन कक्ष में घुस गये और सुश्रुत से लेकर चरक संहिता तक सबकुछ खंगाल डाला | फिर कांपते कराहते हुए, सौंठ और तुलसी के काढ़े से एडीस नामक मच्छर के खानदान को चुनौती देते रहे | किसी ने बताया की कच्चे पपीते का दूध ऐसे बुखार में रामबाण होता है | लिहाजा कच्चा पपीता हाज़िर किया गया | उन्हें संदेह ना हो इसलिए, बच्चे लोग पपीते के छोटे-छोटे पौधे भी उखाड़ लाये | लेकिन उनका कांपना नहीं रुका | थक हारकर घर वाले उन्हें उनकी मर्जी के खिलाफ, ठेलते ठालते अस्पताल ले आये |
              मैंने उनका हाथ पकड़ते हुए कहा, चिंता मत करो ठीक हो जाओगे | वे बोले ये हाथ मत पकड़ो, ड्रिप निकल जायेगी | मैंने शर्मिन्दा होते हुए, अपना मुड्डा उठाकर पलंग के दुसरे बाजू में रख लिया जिधर उनका दूसरा और ड्रिपविहीन हाथ था | अब मैं शांति से ढाढ़स बंधा सकता था, जबकि उन्हें किसी भी किस्म के ढाढ़स की जरुरत नहीं थी | वे गंभीर चिंतन की मुद्रा में थे और मन में उठे किसी नवागत विचार से हाथापाई कर रहे थे | मैंने उनसे पूछा अब कैसा लग रहा है | उन्होंने कहा - “वीकनेस है और सर चकराता है” | लेकिन असल समस्या ये नहीं है | असल समस्या है, बुखार का रवैया | इस बुखार का तेवर एक दम पाकिस्तानी है | चढ़ता है फिर उतर जाता है | या तो चढ़ जाए या फिर पूरा उतर जाए | मुझे हंसी आ गयी | वे भी मुस्कुरा दिए | फिर उन्हें लगा की वे बीमार हैं, इसलिए गंभीर हो गए |

              उन्होंने कहा मेरा एक काम करोगे? मैंने कहा आदेश करें | वे बोले हो सके तो कहीं से काली बकरी का दूध ले आओ | काली बकरी का दूध डेंगू को जड़ से ख़त्म कर देता है | मैंने तत्काल इन्ट्राविनस ड्रिप वाली खाली बोतल उठाई और काली बकरी ढूंढने अस्पताल के बाहर निकल गया | मुझे लगा इस महानगर में काली बकरी ढूँढना, हंसी ठट्ठा नहीं है | लेकिन मुझसे ज्यादा चुनौती तो उन डॉक्टरों के सामने है जो एक ऐसे मरीज़ का इलाज कर रहे हैं जिसे चिकनगुनिया का बुखार है पर वो खुद को डेंगू का मरीज़ मान चुका है |

Saturday, October 15, 2016

"पीपल की जड़ें"

उस सभा में वृक्षारोपण की बात हो रही है |
कुछ कुछ पर्यावरण टाईप का मामला है |हरा भरा वातावरण ,शुद्ध हवा ,स्वच्छता इत्यादि |कालोनी की सभा है |इस कालोनी में बरसात के दौरान या उतरती बरसात में इस तरह की सभाएं या मीटिंग कह लो होती रहती हैं | सभ्य  और भद्र जनो  की कालोनी है | कुछ लोग अनपढ़ और जाहिल  भी  हैं पर यहाँ रह्ते रहते सभ्य हो गए हैं | सभ्य लोगों का तो यही मानना  है  ,  उन अनपढ़ लोगों के बारे में | सभ्य लोग रात दिन इसी गुमान में रहते हैं कि वे पढ़े लिखे हैं और ये देश तथा दुनिया उन्ही के  कारण चल रही है | वे अखबार पढ़ते हैं टी वी में न्यूज़चेनल  देखते हैं और सुनहरी फ्रेम का चश्मा लगाकर छत पर टहलते हैं | छत पर वे यों ही नहीं टहलते | बल्कि टहलते हुए सोचते भी हैं | उनके पास महंगी कारें  हैं और  उनके बच्चे विदेश में पढ़ते हैं  | उन लोगों के मन में देश के अलावा इस कालोनी को भी हरा भरा और स्वच्छ  बनाने की  योजनायें है | इन्ही योजनाओं के चलते  ये मीटिंग रखी  गई है |
                                          मीटिंग को योगिराज जी संबोधित कर रहे हैं | प्राय: वही करते हैं | देखा जाये तो ये सभा भी उन्होंने ही बुलाई है | योगिराज जी भले आदमी हैं | उनके भले होने का प्रमाण यह है कि वे धीरे धीरे चलते हैं और कभी कभी अपनी सफ़ेद धोती का एक छोर उठाकर जाकिट के खीसे में खोंस लेते हैं |योगिराज जी जमीन पर कदम इतने  हल्के से रखते हैं कि कहीं धरती पर वजन ज्यादा न पड़ जाये | जबकि उनका वजन बहुत ज्यादा नहीं है | वे धोती कुरता और चप्पल पहनते  हैं  और  उनके बाएं कंधे पर  एक झोला लटका रहता है जो उन्होंने खादी ग्रामोद्योग से खरीदा है | इस झोले में फलों के बीज और विभिन्न प्रकार के वृक्षों की जानकारी जानकारी देने वाली पॉकेट बुक्स रहती हैं | योगिराज जी धरती के बढ़ते हुए तापमान से दुखी हैं | वे कालोनी में वृक्ष  लगाकर अपने दुःख को कम करना चाहते हैं | वे अक्सर चिन्तित रहते  हैं |
                                     आज की सभा में सभी चुनिन्दा लोग उपस्थित हैं | और तो और दरोगा  जी भी आये  हैं जो कद काठी से एकदम महापुरुष जैसे दिखाई देते हैं | उनका अच्छा सा कुछ नाम है पर नाम मे क्या धरा है उन्हें सब दरोगा जी ही कहते हैं | वे पहले आबकारी विभाग में दरोगा थे  अब रिटायर्ड होकर   यहाँ बस गए हैं |कालोनी नई है| अभी पूरी वशीगत  नहीं हुई है , लेकिन दरोगा जी ने यहाँ एक प्राइम लोकेशन पर बंगला बना लिया है जो मह्ल जैसा  दिखता है | वे स्वभाव से बहुत विनम्र हैं , मीठा बोलते हैं लेकिन उनकी आँखें बहुत शातिर  हैं | उनके महापुरुष होने में बस इतनी कमी रह गई कि एक बार नौकरी के दौरान उन्होंने अपने अधीनस्थ काम कर रही  एक युवा और सुंदर सी दिखने वाली टाइपिस्ट का हाथ पकड़ लिया था |अब हाथ पकड़ना कुछ ऐसा जुर्म तो  है नहीं कि जिसकी वजह से एक उम्रदार और कद्दावर आदमी की इतनी छीछालेदर  हो कि उसे जेल तक जाना  पड़े | अरे भाई सभी  लोग वक्त जरूरत पर  किसी न किसी का हाथ पकड़ते हैं | सहारे के लिए भी तो हाथ पकड़ा जा सकता है | वो गाना है न “ साथी हाथ बढ़ाना “ दरोगाजी ने भी  शायद इसी भावना से टाइपिस्ट की तरफ हाथ बढाया हो | या मानलो हाथ ही पकड़ लिया तो उसमे ऐसा क्या हो गया | यह घटना इतनी अचम्भित करने वाली है कि जिस थाने में दरोगा जी को ले जाया गया वहां का थानेदार मामले को सुनकर हँस पड़ा | उसने अपने केरियर में इतने  टुच्चे जुर्म की कायमी आज तक नहीं की  थी  कि एक दरोगा ने गलती से या जानबूझकर किसी टाइपिस्ट का हाथ पकड़ ले और मामला थाने तक आ जाए  | लेकिन भाग्य के आगे किसी की चलती है क्या | दरोगा जी को अंततः जैल जाना पड़ा | हलाकि कई समझदार लोगों ने उन दिनों  उस  टाइपिस्ट को समझाया था कि बेटा जाने दो दरोगा जी ने मजाक किया होगा , इतनी सी बात पर रिपोर्ट करना ठीक नहीं है |  पर टाइपिस्ट भी न जाने किस मिटटी की बनी थी | मानी ही नहीं साहब | 
                                   टाइपिस्ट वाला केस अभी भी चल रहा है | एक मामूली सी बात ने दरोगा जी जैसे कद्दावर आदमी के महापुरुष होने की संभावनाओं पर पलीता लगा दिया | यद्यपि जब से वे इस कालोनी में आये हैं उनके  महापुरुष बनने की चेष्टाएँ निरंतर जारी  हैं लेकिन लोग सब जानते हैं | जिस तरह पूर्व जन्म के पाप आदमी  के साथ इस जनम में भी चिपके रहते हैं उसी तरह यह कलंक भी दरोगा जी के साथ चिपक सा गया है | वो तो उनके डाबरमेन नस्ल के कुत्ते , महंगी कार और इस महलनुमा बंगले से काफी रौब पड़ता है वर्ना उनकी इज्जत दो कौड़ी की भी नहीं रहती | आज वृक्षारोपण वाली मीटिंग में दरोगा जी सबसे आगे वाली कुर्सी पर बैठे हैं |

                             यों देखा जाए तो यह कालोनी उतनी भी उजाड़ या वीरान टाईप की नहीं  है कि कहीं कोई झाड पेड़ ही न हो | लोगों ने अपने अपने अहातों में अपनी औकात के अनुसार नीबू , अमरुद आदि के छोटे मोटे वृक्ष लगा रखे हैं | रबर और आम आदि  के भी ढेरों हैं पर हैं बाउंड्री के भीतर | बंगले आपस में इस कदर सटे हैं कि नीबू का झाड  इधर लगा है पर नीबू पड़ोस वाले खाते  हैं | यही हाल अमरुद का भी है | या तो पड़ोस के बच्चे बाउंड्री वाल पर चढ़कर तोड़ते हैं या राहगीर डाल झुकाकर | क्या मजाल कि  जिसने नीबू बोया है उसे एकाध चखने को मिल जाये | नीबू और अमरुद के कारण कालोनी में अक्सर छोटी मोटी लड़ाइयाँ भी होती रहती हैं | कभी कभी सिर फुटव्वल भी | भर भिनसारे से किसी न किसी के मकान  में चें चें शुरू हो जाती है |
यहाँ का नीबू किसने तोडा जी
हमने नही तोडा | हमारे घर खुद का नीबू का झाड  है |
लेकिन कल तो लगा था
हमको क्या मालूम | आज भी लगा होगा | या वहीँ कहीं पत्तों की  आड़ में छुपा होगा | इस कालोनी के नीबू इतने बदमाश हो चुके हैं कि पत्ते की  आड़ में छुपे रहते हैं | या फिर गिर गया हो , क्या नीबू अपने आप नहीं गिरते |
दूसरों का नीबू चुराते शर्म नहीं आती
पहले अपने गिरेबान में झांको अंकल जी आपके घर जो पंखा लगा है वह कहाँ से लाये  हो | आपने खरीदा है क्या | खरीदा है तो फिर उस पर समाज कल्याण विभाग क्यों लिखा है |
देखो मुझ पर पंखा चोरी का आरोप तो लगाना नहीं | बताये देते हैं |
ह्म क्यों  आरोप लगायें पंखा खुद बता रहा है कि वह कहाँ से आया है |
चोप्प !
चोप्
घरेलू लड़ाइयों  की  यही फितरत है , वे शुरू भले ही नीबू से हों ख़तम कहाँ होगी इसका अनुमान लगाना मुश्किल होता है | जिस सज्जन के पंखे पर समाज कल्याण लिखा है वे भी सभा में उपस्थित हैं तथा जिसने आरोप लगाया है वह भी | सार्वजानिक काम है और पर्यावरण का मामला है इसलिए सब की उपस्थिति जरूरी है | योगिराज जी प्रस्ताव रख चुके हैं | सुझाव आ रहे हैं | मशविरे चल रहे हैं | कालोनी को वृक्षों से पाट देना है | नर्सरी से लाये गए पीपल के ढेरों पौधे प्लास्टिक कि पन्नियों  में सजाकर रख दिए हैं | हरियाली का प्रश्न है | स्वच्छता का वातावरण बनना चाहिए | कालोनी की नाक का सवाल है | टी गार्ड वाली बात उठ रही है | पीपल का झाड पवित्र होता है , किसी ने कहा | पवित्र तो वैसे नीम का भी होता है , कहो तो नीम के ले  आयें | फिलहाल तो हर बंगले के सामने पीपल ही लगायें , अगली बार नीम का सोचते हैं | किसी ने समाधान प्रस्तुत किया | सभा में सर्वसम्मति बन गयी |
                             अचानक दरोगा जी खड़े हुए और गला साफ़ करते हुए बोले भाइयों , मैंने सुना है कि  पीपल की जड़ें बहुत मोटी होती हैं | और जमीन के भीतर लगातार बढ़ती रहती हैं ,   कालांतर में इतनी मोटी हो जाती हैं की घरों की दीवार में दरार पैदा करने लगती हैं | इसलिए मेरा निवेदन है कि मेरे घर के सामने कोई पेड़ न लगाया जाये | बाकी कालोनी में आप लोग जहाँ चाहें जितने झाड लगायें | मुझे पर्यावरण के चक्कर में अपना घर नहीं तुडवाना | इतना कहकर दरोगा जी बैठ गए |

दरोगा जी का सुझाव इतना तल्ख़ था की पूरी सभा में पहले सन्नाटा जैसा हुआ फिर एक  अद्रश्य भारी पन छा  गया | खुसुर पुसुर मचने लगी | लोग अपनी जगह से खड़े होने लगे | थोड़ी देर पहले जो सर्वसम्मति बनी थी वह  गहरी  निराशा  में तब्दील हो गयी | पीछे से कोई कह रहा था , ऐसा है तो फिर बिना  पीपल के ही अच्छे हैं , छत तो बची रहेगी | लोग उठ उठ कर जाने लगे | योगिराज जी कुछ कहना चाहते थे पर उनकी घिघ्घी बंधने लगी | दरोगा जी मूछों के भीतर मुस्कुराते हुए बाहर निकल रहे थे | उन्हें आभास होने लगा कि उनके महापुरुष बनने की संभावनाएं प्रबल होती जा रही हैं |  प्लास्टिक की पन्नियों में रखे पीपल के पौधे मुरझाने लगे थे |

Tuesday, October 11, 2016

"झोलाछाप डॉक्टर बनने की कला"

जैसा कि सभी जानते हैं और यह एक अकाट्य सत्य भी है कि बीमारी या तो पूर्वजन्म में किए गए पापों के कारण होती है या फिर ज्योतिषियों द्वारा प्रचारित ग्रहों की कुदृष्टि के कारण। आपकी कुंडली में यदि शनि की दशा बहुत बुरे वर्ष में हो, चंद्रमा छठे ग्रह में प्रवेश करना चाहता हो और केतु की अवस्था भी दुर्बल हो तो समझिए आपकी खटिया खड़ी होने का पूरा कार्यक्रम ऊपर से ही निर्धारित कर दिया गया है अर्थात आप बीमार पड़ने से बच ही नहीं सकते। फिर भले ही आप योग और एरोबिक्स आदि का खटराग करते रहिए।


बीमारी में डॉक्टर के पास जाने की परंपरा है, लेकिन डॉक्टर केवल निमित्त है। यह निमित्त चाहे झोलाछाप हो या डिग्रीधारी, निमित्त केवल निमित्त होता है। बहरहाल, बीमारी और डॉक्टर के संबंध जन्म-जन्मांतर के होते हैं। बीमार पड़ने पर आदमी अस्पताल जरूर जाता है। बड़ा आदमी बड़े अस्पताल जाता है, जबकि छोटा आदमी किसी भी खैराती अस्पताल में इलाज करवाकर स्वस्थ हो जाता है। ज्यादातर लोग बिना दवा के ठीक होते हैं और श्रेय डॉक्टर को मिलता है। जिन मरीजों को ठीक नहीं होना होता वे किसी भी डॉक्टर से ठीक नहीं होते और सीधे मृत्यु को प्राप्त होते हैं जिसका श्रेय भगवान को दिया जाता है।
आजकल डिग्रीधारी डॉक्टर बनने में बहुत पापड़ बेलने पड़ते हैं। अव्वल तो डोनेशन और कॉलेज की फीस ही इतनी तगड़ी होती है कि सुनकर आदमी को गश्त और मिर्गी इत्यादि आने लगती है और जैसे-तैसे जुगाड़ करके फीस भर भी दी तो पाँच साल तक डॉक्टर बनते-बनते आदमी एक ऐसा डॉक्टर बनकर बाहर निकलता है जो डॉक्टर कम मरीज ज्यादा रहता है। इन फजीहतों से बचने के लिए खाकसार ने झोलाछाप डॉक्टर बनने के लिए कुछ नुस्खे ईजाद किए हैं जिन्हें अमल में लाकर आप आसानी से डॉक्टर बन सकते हैं। मैं पहले ही निवेदन कर दूं कि मेरी कोई फीस-वीस नहीं है सिर्फ इतना ध्यान रखें कि आपकी डॉक्टरी यदि चल निकले तो बजरंगबली के मंदिर में एक नारियल जरूर चढ़ाएँ। उससे आपका और आपके मरीजों का एक साथ भला होगा।
झोलाछाप डॉक्टर बनने के लिए सबसे जरूरी चीज झोला है। एक ऐसा झोला जो खादी या टाट का हो और जिसे आसानी से कंधे पर लटकाया जा सके तथा जरूरत पड़ने पर लटकाकर दूर तक भागा जा सके। झोले के बाबत यह सावधानी रखना बहुत आवश्यक है कि वह चमड़े अथवा रेग्जीन का कतई न हो।
लेदर का महंगा बैग लटकाकर आप बहुराष्ट्रीय कंपनी के एक्जीक्यूटिव भले ही बन सकते हों, झोला छाप डॉक्टर हर्गिज नहीं बन सकते। यहाँ यह भी ध्यान रखना जरूरी है कि झोला खाली न हो, उसमें कुछ दवाइयां इत्यादि भी हो। प्रारंभिक तौर पर आप चाहे तो उल्टी-दस्त, खांसी, सर्दी और पेटदर्द आदि की दवाएं रख सकते हैं।
ये बीमारियां आमतौर से सभी को होती हैं और डॉक्टर की मदद के बिना ही ठीक हो जाती हैं। दवाएं थोड़ी मात्रा में रखें, शुरू में ज्यादा पैसे बिगाड़ना ठीक नहीं है। दुर्भाग्य से यदि दुकान ठीक-ठाक नहीं चली तो व्यर्थ नुकसान उठाना पड़ सकता है। झोले में कुछ इंजेक्शन भी रख लें। डॉक्टरी के दौरान प्रायः ऐसे मरीजों से भी पाला पड़ सकता है जो बिना इंजेक्शन के ठीक नहीं होते। गांवों, कस्बों में तो मरीज खुद ही कहते हैं 'डॉक्टर साब इंजेक्शन लगा दो' मेरा बुखार इंजेक्शन के बिन नहीं जाएगा।
दवाओं से भरे झोले अथवा असबाब को उठाकर आप सीधे उस दिशा कि तरफ निकल जाइए जिधर गांव है। शहर से बाहर आप जिस दिशा में प्रस्थान करेंगे आपको गांव ही गांव दिखाई देंगे। जैसा कि सभी जानते हैं कि भारतवर्ष जो है वह गांवों का देश है और बतौर झोलाछाप डॉक्टर आपको यह भी समझना चाहिए कि, गांव में और कुछ भले ही न मिले मरीज बहुतायत से मिल जाएंगे।
दमा, मिर्गी, साइटिका से लेकर गुप्तरोग और नामर्दी तक जितनी बीमारियां होती हैं वह सब गांवों को ही होती हैं। गांव के मरीज इन बीमारियों को जीवनभर झेलते हैं, लेकिन शहर आकर इलाज कराना कतई पसंद नहीं करते। शहरी डॉक्टरों का अभिजात्य, कांच से अभिमंडित साफ-सुथरा और भव्य क्लीनिक ग्रामीण मरीजों को भयभीत करता है। वह गांव में रहकर बीमारी भोग लेता है पर शहरी अस्पताल की आतंकित कर देने वाली स्वच्छता और ऊंचे डॉक्टर का शाश्वत मौन उसे शहर आने से रोकता है। ऐसे मरीजों के लिए झोलाछाप डॉक्टर देवदूत होता है।
झोलाछाप डॉक्टर बनने के दौरान शुरू में दवाओं के चयन आदि में कुछ परेशानियां आती हैं। इनसे घबराने की जरूरत नहीं है। ज्यादातर तो दवा की बोतलों पर उसका नाम आदि लिखा रहता है। उसे पढ़ने का अभ्यास करते रहिए या फिर बेहतर है कि कुछ दिन के लिए किसी छोटे-मोटे अस्पताल में वार्ड ब्वॉय या कंपाउंडर का काम सीख लिया जाए। यह काम आपके आत्मविश्वास को बढ़ाएगा। जैसा कि सभी जानते हैं कि जीवन में आत्मविश्वास बहुत जरूरी है। कई डॉक्टर ऐसे भी देखने में आए हैं जो सिर्फ आत्मविश्वास के बल पर बड़े-बड़े ऑपरेशन कर डालते हैं।
ऑपरेशन के दौरान चूंकि उनके मुंह पर कपड़ा बंधा रहता है इसलिए उन्हें पहचानना मुश्किल होता है। घाव पर पट्टी बाँधने या इंजेक्शन लगाने जैसे साधारण काम कंपाउंडरी से सीखे जा सकते हैं। अस्पताल में कंपाउंडरी करने का मौका न मिले तो किसी मेडिकल स्टोर्स पर दवा बेचने का काम भी किया जा सकता है, इससे अंग्रेजी दवाओं के नाम याद हो जाएँगे। आपमें यदि प्रतिभा है और आप श्रम से जी नहीं चुराते तो कंपाउंडरी और दवा बेचना, दोनों काम एक साथ कर सकते हैं। यह आपको एक संपूर्ण झोलाछाप डॉक्टर बनाने में बहुत मदद करेगा।
मरीजों की एक सर्वे रिपोर्ट से पता चला है कि कुछ मरीज सिर्फ अंग्रेजी दवाओं से ही ठीक होते हैं। जब तक वे तीन-चार रंग की बहुरंगी कैप्सूल न खा लें, उनकी बीमारी जाती ही नहीं जबकि कतिपय मरीज ऐसे होते हैं जिन्हें होम्योपैथी से बेहतर और कोई गोली लगती ही नहीं। कुछ तो इतने बदमाश होते हैं कि उन्हें आयुर्वेदिक काढ़ा, पुड़ियाएं और भस्म ही ठीक कर पाते हैं। ऐसी स्थिति में एक कुशल झोलाछाप डॉक्टर का यह फर्ज होता है कि वह हर पैथी को अपने मरीज पर आजमाएं तथा इतने लंबे समय तक आजमाएँ कि मरीज अथवा बीमारी दोनों में से कोई एक अपने आप पलायन कर जाए।
जो भी मरीज आपके पास आए उसे ग्लूकोज की ड्रिप जरूर चढ़ाइए। ड्रिप चढ़ाने से एक ऐसा वातावरण उपस्थित होता है कि अस्पताल का पूरा कमरा एकाएक गंभीर हो जाता है। मरीज भी ज्यादा चिल्ला-चोट नहीं करता तथा स्टैंड पर लटकी बोतल को घंटों टकटकी लगाए देखता रहता है।
ड्रिप की रफ्तार इतनी धीमी रखें कि एक बूंद टपकने में लगभग आधा घंटा लगे। इससे मरीज को तथा उसके घर वालों को लगेगा कि दवा बड़ी मुश्किल से शरीर में जा रही है। देखने में यह भी आया है कि तीन-चार घंटे यदि ड्रिप चलती रहे तो अनेक मरीज केवल सुस्त पड़े रहने और बोरियत आदि की वजह से ठीक हो जाते हैं और श्रेय डॉक्टर को मिल जाता है। एक झोलाछाप डॉक्टर को यह श्रेय अवश्य लेना चाहिए।
गंभीर रूप से घायल और बेहोश मरीजों के इलाज का प्रयास न करें। उन्हें देखते ही शहर के बड़े अस्पताल में भिजवाएं। अस्पताल की भाषा में इसे रैफर करना कहते हैं। लेकिन जो मरीज आपके इलाज के दौरान गंभीरता को प्राप्त हुए हैं अथवा बेहोश हो चुके हैं, उन पर दुबारा हाथ न आजमाएं। उन्हें चुपचाप शहर के अस्पताल भेजकर अपना क्लीनिक बंद करें तथा अज्ञातवास पर चले जाएं और भगवान से प्रार्थना करते रहें कि वह होश में आ जाए।
आपके द्वारा बिगाड़ा गया 'केस' यदि ज्यादा बिगड़कर इस नश्वर संसार से विदा हो जाए तो कृपया अपने क्लीनिक पर दुबारा न जाएं, क्योंकि वहां जाने पर आपकी जो दुर्गति होगी, वह असहनीय होगी। ऐसी स्थिति में किसी अन्य गांव में जाकर अस्पताल खोलें। इ
स देश में गांवों की कोई कमी नहीं हैं।
एक झोलाछाप डॉक्टर के लिए यह अत्यंत आवश्यक है कि अपने अस्पताल के कोने में एक छोटा-मोटा बंकर बनाकर रखें। मौका-ए-वारदात से गायब होने के लिए यह बंकर बहुत जरूरी है। समय-समय पर सरकार झोलाछाप डॉक्टरों के क्लीनिक पर छापा डालने की मुहिम चलाती रहती है।
यह मुहिम एक तरह की नौटंकी होती है जिससे न सरकार को कुछ हासिल होता और न ही झोलाछाप डॉक्टरों का कुछ बिगड़ता है। यह एक सरकारी रूटीन मात्र है। छापे के दौरान एक सफल झोलाछाप डॉक्टर को अपने अस्पताल के बंकर में छुप जाना चाहिए। बंकर न होने की स्थिति में झोला उठाकर बगटूट भागा भी जा सकता है। एक अच्छे झोलाछाप डॉक्टर को फुरसत के समय झोला उठाकर दौड़ने का अभ्यास करते रहना चाहिए।
यदि बतौर झोलाछाप डॉक्टर ऐसे गांवों में क्लीनिक डाले बैठे हैं जहां थाना वगैरह है, तब आपको यह सतर्कता रखनी होगी कि सुबह-शाम थानेदार साब से नमस्ते करते रहें तथा गाहे-बगाहे थानेदार की पत्नी को विटामिन की गोली और सीरप भेंट करते रहें। ऐसा करने से एक ओर तो थानेदार की पत्नी का स्वास्थ्य ठीक रहेगा और दूसरी ओर छापे आदि के दौरान आपका अस्पताल और आप स्वयं भी क्षतिग्रस्त होने से बचे रहेंगे। झोलाछाप बनने के नुस्खों के लिए यह पहली किस्त है। दूसरी शीघ्र जारी होगी। आमीन!

"गुलमोहर उदास है"

मेरे मोहल्ले के कवि ने एक कविता लिखी जिसमे काम की बात इतनी सी है क़ि गुलमोहर उदास है।जहाँ तक मेरी जानकारी है क़ि इस कवि के घर गुलमोहर का पेड़ नहीं है।गुलमोहर तो छोडो किसी भी तरह का पेड़ नहीं है।वह पेड़ लगाने में विश्वास नही करता बल्कि बनते कोशिश दूसरों की जड़ें खोदने में लगा रहता है।यह ऐसा कवि है जो दूसरों के लगाये पेड़ों पर कविता लिखता है।असली बुद्धिजीवी की यही पहचान है।खुद कुछ मत करो दूसरा कोई करे तो ऊसे लपक लो।लेकिन ठीक है पराये गुलमोहर पर भी कविता लिखी जा सकती है।दुष्यंत कुमार ने कहा है जिओ तो अपने बगीचे में गुलमोहर के लिए मरो तो गैर की गलियों में गुलमोहर के लिए।कहने का तात्पर्य यह कि जो कुछ करना है गुलमोहर के लिए करो नहीं तो कुछ मत करो।जैसा कि प्रायः कवि लोग करते भी हैं।साहित्य में सबके अपने अपने गुलमोहर हैं।जिनमे कविगण सामर्थ्य के अनुसार खाद पानी देते रहते हैं।


और कविता का बगीचा लहलहाता रहता है।

लेकिन देश की असल समस्या गुलमोहर नहीं है।असल समस्या यह है कि रूपये का अवमूल्यन हो रहा है और महंगाई आम आदमी की कमर तोड़ रही है।कमर ही क्यों शरीर के दीगर हिस्से भी टूट रहे हैं।आम आदमी जजर बजर हो रहा है।वह झोला लेकर बाजार जाता है और गहरी उदासी लेकर लौट आता है।कोतमिर और पालक ने ही बजट बिगाड़ दिया है।उसे वित्तमंत्री पर भरोसा नहीं है।जो बार बार कहते हैं क़ि महंगाई कम होगी।उसे भिन्डी बेचने वाली बाई पर ज्यादा भरोसा होते जा रहा है जो दडेगम बोलती है क़ि भिन्डी का भाव कम नहीं होगा।
आदमी चाहता है सरकार सच बोले।सरकार समझ चुकी है क़ि सिर्फ बोलने से महंगाई कम नही होगी कुछ करना पड़ेगा ।वह महंगाई का मारक मन्त्र ढूंढने निकल पड़ी है।जब तक मन्त्र नहीं मिल जाता बयानबाज़ी करते रहो।एक प्रवक्ता ने तो यहाँ तक कहा कि महंगाई बढ़ी है तो कम भी होगी।विज्ञान का नियम है क़ि जो चीज जितनी ऊपर उठती है उतनी नीचे भी आती है।महंगाई कोई विज्ञानं से बड़ी थोड़े ही हो गई है।मैंने कहा सर आप बाजार पर विज्ञान के नियम लाद रहे हैं।वे बोले यार देखो इस देश का आदमी प्याज मिर्ची और घासलेट का रोना रोता रहता है।उसे विज्ञान की उपलब्धियां नजर नहीं आती।अरे हमने धरती के नीचे से ईश्वरीय कण खोज निकाला।आज ईश्वर के कण को खोजा है तो कल ईश्वर को भी ढूंढ निकालेंगे ।आप लोग महान खोजों के बजाय हल्दी मिर्ची का रोना रोते रहते हो।आयं ।सरकार क्या पन्सारी की दुकान चलाती है।बोलो।
वह कुतर्क पर उतर आया।उसने कहा भला बताइये महंगाई इतनी ही बढ़ गई है तो सारा देश रोज बिग बाजारों और मल्टीफ्लेक्सो में क्यों घुसा रहता है।कोई महंगाई वहंगाइ नहीं है।इस देश का बुद्धिवादी सही करता है।वह महंगाई की तरफ पीठ करके पड़ोसी के गुलमोहर पर कविता ठोंकता है।इसके दो फायदे हैं।एक तो महंगाई पर बेकार के विधवा विलाप से बच जाता है।और दूसरे गुलमोहर हरा भरा बना रहता है सो मुफ़्त में।पडोसी का ही सही फूल तो खिलते हैं। कि गलत कह रहा हूँ।

"फिर से एक बार जामुन की बहार"

चुनाव के दौरान बिहार में जो बहार थी वह अब तक कायम है या नहीं इसकी मुझे पुख्ता जानकारी नहीं है | अलबत्ता इन दिनों बाजार मे सस्ते प्याज और महंगे टमाटरों के बीच  जामुन की जो बहार आई है वह देखने में इतनी सुन्दर लग रही है कि खाने को दिल मचल उठा है | जामुन बेचने वाले काली काली  जामुन के टोकरे लिए बाजार में आमद दर्ज करा चुके हैं तथा बाजार की भाषा समझने वाले बता रहे हैं कि फ़िलहाल जामुन ने आम को पछाड़ दिया है | जामुन का साहित्य में काफी महत्व है |जो साहित्यकार जामुन के पेड़ का महत्व नहीं समझते वे और कुछ भले ही बन जाएँ ऊंचे लेखक नहीं  बन सकते | जामुन का पेड़ ऊँचाई की  प्रेरणा देता है | मेरे इलाके के एक कवि ने बताया कि वह बचपन से ही  जामुन के पेड़ पर चढ़ा  करता था | यही कारण है कि आज वह बड़ा और ऊंचा कवि है | यह अलग बात है कि जामुन के पेड़ से  फिसलने के कारण  उसकी एक टांग क्षतिग्रस्त होकर कमजोर  गयी है  | लेकिन कविता वह काफी मजबूत लिखता है |

सुधी जन समझते ही हैं कि साहित्य में टांग की  अपेक्षा कविता का ज्यादा महत्व है | जिनकी टाँगे टूटने से बची हुई है उनकी क्या कम टांग खिंचाई हो रही है | यही कारण है कि समझदार लेखक बचपन  में ही अपनी टांग जामुन आदि पर चढ़कर तुडवा लेते हैं | बहरहाल इधर बरसात की मीठी फुहारें मन में शीतलता भर रही हैं और मुझे सुप्रसिद्ध कवि त्रिलोचन की याद आरही है जिन्हें चम्पा के काले अक्षर ही नहीं भाते थे वरन  काली काली जामुन भी खूब पसंद थी |उन्होंने कहा है कि, काली घटा गगन पर छाई मंद हुआ भूतल पर ताप रिमझिम रिमझिम पानी बरसा इधर उधर है उसकी छाप, पवन झोरता है डालों को टपक रहें हैं जामुन आम | त्रिलोचन ने आम और  जामुन दोनो को टपकते देखा | लेकिन अबरू शाह मुबारक अपनी गज़ल में सिर्फ जामुन के कशीदे काढते हैं | हमारे सांवले को देखकर जी में जली जामुन मजेदारी में है गोया ये मिश्री की डली जामुन मेरे शहर में जामुन बेचने वाले गली गली घूम रहे हैं | कालोनी की महिलायें टी वी के सीरियल छोडकर ठेले के इर्द गिर्द खड़ी हैं, और पके हुए जामुन छांट  रही हैं | पकी हुई जामुन मीठी लगती है | जामुन के ढेर से पकी हुई जामुन छांटना भी एक  कला  है | महिलाएं इस कला में प्रवीण होती हैं | पकी हुई जामुन तत्काल बिक कर काल के गाल में समा जाती है | पकी उम्र के नेता को राजनीति में भी छांटकर अलग कर दिया जाता है तथा मार्गदर्शक मंडल मे घुसेड दिया जाता है |
पकने का दर्द या तो जामुन को पता है या राजनेता को | इधर किसी चेनल पर बाबा रामदेव जामुन के  आयुर्वेदिक  गुणों का बखान कर रहे हैं | जामुन एक ऐसी  चीज है जिसके पत्ते से लेकर गुठली तक फायदेमंद है | मधुमेह की तो यह रामबाण औषधि है | लाल और  नीले  को मिलाकर  जो रंग बनता है  वह जामुनी कहलाता है | इस जामुनी रंग को अंगरेजी में पर्पल कलर कहते है | महिलायें पर्पल कलर की साड़ी बहुत शौक से पहनती हैं |  पढ़ी लिखी महिलाएं जामुनी के बजाये पर्पल बोलना ज्यादा पसंद करती हैं | पर्पल बोलते  वक्त उनके चेहरे से जो आभिजात्य टपकता है वह देखते बनता है | भाषा के कारण भी इस देश में वर्ग चेतना पनपी है | गोरे रंग की महिलाओं को पर्पल कलर की साड़ी फबती है| अलबत्ता जो गोरी  नहीं हैं उन्हें पर्पल कलर की साड़ी के बजाये गोरे होने की क्रीम की  तरफ ध्यान देना चाहिए | यह क्रीम कहते  हैं पतंजलि में आजकल बहुतायत से मिलती है | जामुन की दूकान पर महिलाओं की सघन उपस्थिति देखकर मेरा मन जामुन बेचने को लालायित हो उठा है | जामुन बेचने वाले दुकानदारों के हाथ जामुन बेचते बेचते काले पड़ जाते हैं | लेकिन ये कोयले की दलाली करने वाले हाथों की  तरह काले नहीं पड़ते |जामुन बेचने वालों कि आत्मा आखिरी सौदे तक उजली  बनी रहती है| जबकि कोयले कि दलाली करने वालों कि आत्मा काली पड़ जाती है | उनकी   आत्मा का परीक्षण सुप्रीम कोर्ट में  आज  भी चल रहा  है | बरसात में जामुन का पेड़ इतना घना हो जाता है कि आदमी चाहे  तो पत्तों  के बीच आसानी से छुप जाये | हमलोग बचपन में स्कूल से भागकर अक्सर जामुन के पेड़ पर छुप जाया  करते थे | जैसे आजकल भ्रष्टाचार करने वाले नेताओं को जाँच आयोग की  आड़ में छुपा लिया जाता है | लेकिन हमारे हेड मास्साब बहुत तेज थे | वे संटी लेकर  ढूढते हुए  सीधे जामुन के पेड़ के पास पहुँच जाते और हमें छुग्गन की डाल से तत्काल बरामद कर लेते |उनकी विशेषता यह होती थी कि जो संटी वो हाथ में लिए होते वह जामुन की  नहीं होती थी | वह या तो अमरुद की होती या फिर इमली की | उस संटी की छाप जब तक हमारी पिंडलियों पर साफ साफ न उभरे तब तक लगातार वे  संटी घुमाते रहते | संटी समारोह के बाद वे हमारे निक्कर की जेब में रखी हुई सारी जामुन निकालकर अपने झोले में रख लेते | झोला जो है वे हमेशा साथ लेकर चलते थे ताकि वक्त जरुरत काम आ सके | उनकी पत्नी यानी हमारी गुरु माँ को जामुन  बहुत पसंद थी | शाम को यदि  हेड मास्साब जामुन लेकर नहीं जाते तो उनकी पत्नी बहुत नाराज होती और उनके घर महाभारत जैसा दृश्य उपस्थित हो जाता | उन दिनों जामुन की वजह से  कई मास्टरों का तलाक तक हो चूका था मुझे तो लगता है हमारे हेड मास्साब खुद ही चाहते थे कि हम स्कूल से भागकर जामुन तोड़ने की कला में पारंगत हों  | आजकल स्कूलों में जो  लर्न और फन जैसा नवाचार चल रहा है उन दिनो हम केवल जामुन पर चढ़ने का पाठ सीखते थे | हमारी प्राथमिक शिक्षा में जामुन का जो महत्व है उसका वर्णन वेदव्यास भी नहीं कर सकते मेरी क्या मजाल है |